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Blog / 15 Jan 2020

(आर्थिक मुद्दे) अमेरिका - ईरान तनाव - कच्चे तेल के भाव (Crude Oil Prices and America-Iran Tension)

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(आर्थिक मुद्दे) अमेरिका - ईरान तनाव - कच्चे तेल के भाव (Crude Oil Prices and America Iran Tension)


एंकर (Anchor): आलोक पुराणिक (आर्थिक मामलों के जानकार)

अतिथि (Guest): पिनाक रंजन चक्रवर्ती (पूर्व सचिव विदेश मंत्रालय), हरवीर सिंह (आर्थिक पत्रकार, आउटलुक हिंदी)

चर्चा में क्यों?

बीते दिनों अमेरिका ने एक हवाई हमले में ईरानी कुद्स बल के कमांडर जनरल क़ासिम सुलेमानी की हत्या कर दी। इस घटना के बाद से दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ गया। अमरीका ने इसे अपने नागरिकों की सुरक्षा की लिहाज से उठाया गया कदम बताया। बदले में, ईरान ने बगदाद स्थित अमेरिकी सैन्य ठिकानों पर बमबारी की।

बहरहाल राहत की बात यह है कि अमरीका ने कोई हिंसक जवाबी कार्यवाही न करने का फ़ैसला किया लेकिन ईरान पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों को और भी ज्यादा सख्त करने की बात कही। मध्य-पूर्व में चल रहे इस तनाव का प्रभाव तमाम अन्य क्षेत्रों पर तो पड़ेगा ही लेकिन इसका असर अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार पर सबसे ज्यादा पड़ने की संभावना होती है।

मध्य पूर्व और कच्चे तेल के भाव

शेल गैस के ईजाद होने के बाद अमरीका एक बड़े ऊर्जा आपूर्तिकर्ता देश के रूप में उभरकर सामने आया है, लेकिन इसके बावजूद कच्चे तेल की बात करें तो, मध्य मध्य पूर्व की अहमियत को नकारा नहीं जा सकता। मध्य पूर्व क्षेत्र में कच्चे तेल के महत्वपूर्ण सप्लायर देश हैं। ईरान, इराक, सऊदी अरब समेत तमाम तेल सप्लायर देशों को कुल मिलाकर मोटे तौर पर मध्यपूर्व के देशों के तौर पर चिन्हित किया जाता है। पूरी दुनिया की ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने में मध्य पूर्व देशों की महत्वपूर्ण भागीदारी है। कच्चा तेल इन देशों में इफरात में है, तो इन देशों का अर्थशास्त्र और राजनीति कच्चे तेल के आसपास घूमती है। यहां जरा भी उठापटक हो, तो कच्चे तेल के भाव उछलने शुरु हो जाते हैं।

  • पूरी दुनिया की कुल तेल खपत का करीब 20 प्रतिशत होरमुज की खाड़ी से गुजरता है, जिसका ताल्लुक मध्य पूर्व की राजनीति से है। पूरी दुनिया की लिक्विफाइड नेचुरल गैस यानी एलएनजी की सप्लाई का करीब 26 फ़ीसदी हिस्सा इसी इलाके से गुजरता है। इसलिए इस इलाके की राजनीतिक सेहत का सीधा असर कच्चे तेल के दामों पर पड़ता है।
  • ग़ौरतलब है कि 14 सितंबर 2019 को सऊदी अरब के दो तेल संयंत्रों पर हमले हुए थे, जिनके बारे में आशंका व्यक्त की गयी थी कि ये इरान समर्थित गुटों ने किये हैं, तब भी कच्चे तेल के भाव ऊंचाई की तरफ गये थे।

भारत को चिंता करने की जरूरत क्यों है?

इतिहास गवाह है कि भारत के लिए संकट जिन दिशाओं से आते हैं, उनमें मध्यपूर्व के कई देश, ईरान, इराक समेत कई देश शामिल हैं। 1991 में जब भारत को पहली बार अपना सोना गिरवी रखना पड़ा था, तब भी उस संकट के सूत्र इराक पर अमेरिकी हमले से जुडे थे। इराक पर अमेरिका के हमले के बाद कच्चे तेल के भाव बहुत तेजी से ऊपर चले गये थे। यानी भारत के विदेशी मुद्रा कोष पर भारी दबाव आ गया था।

  • अब स्थिति ठीक वैसी तो नहीं है। रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक 3 जनवरी 2020 को खत्म हुए हफ्ते में भारत के पास 461.15 अरब डालर के विदेशी मुद्रा कोष थे। इसके मुकाबले जनवरी 1991 में भारत के पास सिर्फ 1.2 अरब डालर के विदेशी मुद्रा कोष थे, यानी वैसे किसी संकट की दूर दूर तक कोई सुगबुगाहट तक नहीं है। पर मध्यपूर्व का संकट तमाम वजहों से भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सवाल खड़े कर रहा है। इस संकट के कई आयाम हैं। अब स्थितियाँ पहले के मुकाबले बेहतर हैं।
  • ट्रंप और ईरान के नेताओं के बीच अब मोटे तौर पर मुंह जबानी जंग तो रोज ही हो रही है। पर पहले के मुकाबले शांति है। ईरान ने अमेरिका के इराक स्थित सैन्य ठिकानों पर बमबारी की है, कुछेक बम धमाके और हुए हैं। पर वैसी स्थिति दिखायी नहीं पड़ रही है, जिसे पूर्ण युद्ध कहा जा सके। यही सबके हित में है, लेकिन इसके बावजूद अपने पिछले अनुभवों से सीखते हुए हमें सतर्क रहने की जरूरत है।

कच्चे तेल की इंडियन बास्केट: एक नजर

मोटे तौर पर, भारत दो किस्म के कच्चे तेल खरीदता है - एक ओमान दुबई सोर ग्रेड कच्चा तेल और दूसरा स्वीट ग्रेड ब्रेंट ग्रेड कच्चा तेल। इन दोनों को मिलाकर कच्चे तेल की भारतीय बास्केट बनती है। भारत सरकार के पेट्रोलियम मंत्रालय से जुड़े संगठन - पेट्रोलियम प्लानिंग एंड एनालिसिस सेल यानी पीपीएसी की वेबसाइट के मुताबिक, 2017-18 में भारतीय कच्चे तेल बास्केट में करीब 75 फ़ीसदी ओमान दुबई सोर ग्रेड कच्चा तेल था और करीब 25 प्रतिशत ब्रेंट था।

  • कच्चे तेल की इंडियन बास्केट के भाव हाल में तेजी से ऊपर गये। 9 जनवरी 2020 को इंडियन बास्केट के भाव 66.34 डालर प्रति बैरल थे। पर इसके पहले के भावों के विश्लेषण से पता चलेगा कि इरानी सैन्य अधिकारी के मौत ने कच्चे तेल के भावों पर क्या किया था। 2 जनवरी 2020 को इंडियन बास्केट आयल से जुड़े भाव 65.99 डालर प्रति बैरल थे। 3 जनवरी को इरानी सैन्य अधिकारी की मौत के बाद हुई उठापटक में 6 जनवरी को यह भाव बढ़कर 69.95 डालर प्रति बैरल तक पहुंच गये। यानी करीब छह प्रतिशत भाव ऊपर चले गये।
  • पश्चिम एशिया के विशेषज्ञ राजनयिक महेश सचदेव ने अपने एक विश्लेषण में साफ किया है कि करीब पांच प्रतिशत उछाल से आयात बिल में करीब 5.7 अरब डालर की बढ़ोत्तरी होती है। ग़ौरतलब यह है कि भारतीय तेल बास्केट के भाव तमाम वजहों से मज़बूती का ही रुख दिखा रहे हैं।
  • पीपीएसी के मुताबिक 2015-16 में कच्चे तेल की भारतीय बास्केट के औसत भाव साल भर पचास डालर प्रति बैरल से नीचे रहे थे। 2015-16 में यह औसत भाव 46.17 डालर प्रति बैरल रहे थे, 2016-17 में यह औसत भाव 47.56 डालर प्रति बैरल रहे। पर अब हालात दूसरे हैं।

कच्चे तेल का दाम बढ़ने से भारत को कौन-सी आर्थिक दिक्कतें हो सकती हैं?

भारत जैसी अर्थव्यवस्था में कच्चे तेल के बढ़ते भाव बहुत पक्की किस्म की समस्याएं पैदा कर देते हैं। तेल के मामले में आयात निर्भरता करीब 84 फ़ीसदी है, हालांकि प्रधानमंत्री ने 2015 में यह लक्ष्य रखा था कि आयात पर निर्भरता को कम करके 2022 तक 67 प्रतिशत पर लाया जायेगा। 2015 में आयात निर्भरता 77 प्रतिशत थी।

  • पीपीएसी के आंकड़ों के मुताबिक तेल आयात पर भारत ने 2018-19 में 112 अरब डालर खर्च किये, इसके पहले के साल यानी 2017-18 में यह खर्च 87.8 अऱब डालर था। तो बढ़ते तेल आयात का मतलब यह हुआ कि ज्यादा विदेशी मुद्रा का खर्च। ज्यादा विदेशी मुद्रा के खर्च का मतलब डालर की ज्यादा मांग, डालर की ज्यादा मांग का मतलब डालर के मुकाबले भारत का रुपया एक हद तक कमजोर हो सकता है।
  • इसके अलावा, एक बड़ा मसला यह भी है कि कच्चे तेल की महँगाई देर-सबेर तकरीबन हर वस्तु को महँगा बनाती है। आइटम लगातार महंगे होंगे, महँगाई दर लगातार बढ़ती है, रिजर्व बैंक ब्याज दरों को कम करने में हिचकिचाता है। तर्क साफ है कि महंगी या ज्यादा ब्याज दर के बावजूद महँगाई बढ़ रही है, तो सस्ती ब्याज दर पर तो ख़रीद एवं महँगाई और बढ़ेगी। इसलिए, ऐसा लग रहा है कि अब रिजर्व बैंक ब्याज दरों में कमी करने के मूड में नहीं है। इससे उद्योग जगत में अलग किस्म की चिंताएं फैलती हैं।
  • सबसे महत्वपूर्ण बात जो है वह यह कि शेयर बाजार में निवेशकों की धारणा कमजोर होने का व्यापक असर दिख सकता है।

युद्ध टल गया, तो क्या चिंता की कोई बात नहीं?

हाल में थोड़ी बहुत शांति के बाद यह नहीं समझा जाना चाहिए कि हालात संभल गये हैं। अमेरिका ने घोषणा की है कि वह ईरान पर और भी कड़े प्रतिबंध लगायेगा। दूसरी तरफ ईरान ने कहा कि वह बदला लेगा। यानी भारत को हर परिस्थिति के लिए तैयार ही होना पड़ेगा। क्योंकि कच्चे तेल के मामले में, भारत के हाथ में कुछ खास करने के लिए नहीं है। एक काम जो भारत कर सकता है, वह यह है कि वह बिजली चालित वाहनों को बढ़ावा दे। पर उसकी ठोस संभावना निकट भविष्य में नहीं दिखती। तो कुल मिलाकर, अगर मध्य पूर्व के तनाव नहीं संभले तो भारतीय अर्थव्यवस्था चुनौतियों के एक नये दौर में प्रवेश कर सकती है।

किस तरह की नीतियाँ दोनों देश अपना रहे हैं?

अमेरिका: अमेरिका ईरान पर ‘अधिकतम दबाव बनाने की नीति’ अपना रहा है। ईरान को राजनीतिक तौर पर, आर्थिक तौर पर घेरने की मंशा अमेरिका की है। अमेरिका चाहता है कि ईरान को आर्थिक तौर पर इस कदर परेशान कर दिया जाये कि ईरान में आंतरिक असंतोष चरम पर पहुंच जाये।

ईरान: अमेरिका के खिलाफ ईरान ‘अधिकतम विरोध करने की नीति’ अपना रहा है। ऐसा शक किया जाता है कि सऊदी अरब के तेल टैंकरों पर हमले के पीछे ईरान समर्थित समूह ही थे।

क्यों बढ़ गया अमेरिकी-ईरान तनाव?

परमाणु क़रार का रद्द होना: साल 2015 में, जर्मनी समेत संयुक्त राष्ट्र के पांच स्थायी सदस्यों (P5+1) और ईरान के बीच एक परमाणु समझौता हुआ। समझौते के मुताबिक़ ईरान को अपने संवर्धित यूरेनियम भंडार को कम करने और अपने परमाणु संयंत्रों को संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षकों को निगरानी की इजाज़त देनी थी। इसके अलावा इस समझौते के तहत ईरान को हथियार और मिसाइल ख़रीदने की भी मनाही थी। अमेरिका इन समझौते के बदले ईरान को तेल और गैस के कारोबार, वित्तीय लेन देन, उड्डयन और जहाज़रानी के क्षेत्रों में लागू प्रतिबंधों में ढील देने के लिए राजी था। लेकिन अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी को ये डील रास नहीं आया और उन्होंने कहा कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वे इस डील को रद्द कर देंगे। इसी के मुताबिक़ ट्रम्प प्रशासन ने इस परमाणु समझौते से बाहर होने का निर्णय ले लिया।

ईरान पर प्रतिबंधों का लगाया जाना: ईरान की अर्थव्यवस्था कमज़ोर करने के लिहाज़ से अगस्त, 2018 में अमेरिकी प्रशासन ने वे सभी प्रतिबंध फिर से उस पर लगा दिए जिन्हें परमाणु करार के तहत हटा लिया गया था। अमेरिका का मानना था कि आर्थिक दबाव के चलते ईरान नए समझौते के लिये तैयार हो जाएगा।

अमेरिका द्वारा आइजीआरसी को आतंकी संगठन घोषित करना: अमेरिका ने अप्रैल 2019 में को ईरान के इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स यानी आइजीआरसी को आतंकी संगठन घोषित किया। ऐसी पहली बार हुआ है कि किसी देश द्वारा किसी दूसरे देश के सरकारी सुरक्षा एजेंसी को आतंकी संगठन घोषित किया गया हो। बदले में ईरान ने भी अमेरिकी सेना को आतंकी समूह क़रार दे दिया।

तेल टैंकरों पर हमले के कारण तल्ख़ी और बढ़ गई: होरमूज स्ट्रेट में गत 13 मई को चार अमेरिकी तेल टैंकरों पर हमला किया गया। अमेरिका को लगता है कि ये हमला ईरान ने कराया है लेकिन ईरान ने इन आरोपों को खारिज कर दिया। इसके बाद 24 मई को अमेरिकी प्रशासन ने इस क्षेत्र में अपनी स्थिति और मजबूत करने के लिहाज़ से 1500 और सैनिकों को भेजने का फैसला लिया।

ईरान ने अमेरिकी ड्रोन को मार गिराया: ईरान ने 20 जून को एक अमेरिकी ड्रोन को मार गिराया। ईरान ने दलील दी कि ड्रोन उसकी वायु सीमा में प्रवेश कर रहा था इसलिए इसे निशाना बनाया गया। लेकिन अमेरिका का कहना था कि ड्रोन अंतरराष्ट्रीय जल सीमा पर था। ईरान ने कहा कि अमेरिका चाहे कोई भी फैसला करे लेकिन ईरान अपनी सीमाओं का उल्लंघन बर्दाश्त नहीं करेगा और वो हर खतरे का जवाब देने को तैयार है।

अरामको पर ड्रोन हमला: गत 14 सितम्बर 2019 को सऊदी अरब की सरकारी तेल कंपनी अरामको के दो बड़े ठिकानों - अबक़ीक़ और ख़ुरैस - पर भयानक ड्रोन हमले हुए। जिसके चलते अस्थाई तौर पर इन दोनों जगहों पर तेल उत्पादन प्रभावित हुआ। सऊदी अरब ने इस हमले का आरोप ईरान पर लगाया। अमेरिका ने भी हमले का आरोप ईरान पर मढ़ा और कहा कि उसका पास इस बात का पूरा प्रमाण है कि हमला ईरान द्वारा करवाया गया है। हालांकि ईरान ने अपने ऊपर लगे इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज किया था। वहीं इससे अलग इस हमले की अधिकारिक ज़िम्मेदारी यमन के हूथी विद्रोहियों ने ली। ग़ौरतलब है कि यमन के हूथी विद्रोहियों को ईरान का समर्थन प्राप्त है।

बीते 27 दिसम्बर को इराक स्थित अमेरिकी दूतावास में तोड़-फोड़ और आगजनी हुई, घटना का आरोप ईरान के मत्थे मढ़ा गया।

कैसे तय की जाती है भारत में तेल की कीमत?

तेल की कीमतें दो मुख्य चीजों पर निर्भर होती हैं - अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रूड ऑयल यानी कच्चे तेल की कीमत और दूसरा सरकारी टैक्स। क्रूड ऑयल के रेट पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है, मगर टैक्स सरकार अपने स्तर से घटा-बढ़ा सकती है।

  • पहले देश में तेल कंपनियां खुद दाम नहीं तय करतीं थीं, इसका फैसला सरकार के स्तर से होता था। लेकिन जून 2017 से सरकार ने पेट्रोल के दाम को लेकर अपना नियंत्रण हटा लिया। अब अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिदिन उतार-चढ़ाव के हिसाब से तेल की कीमतें तय होती हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की खरीद बैरल के हिसाब से होती है। एक बैरल में करीब 159 लीटर तेल होता है।
  • अमूमन जिस कीमत पर हम तेल खरीदते हैं, उसमें करीब पचास प्रतिशत से ज्यादा टैक्स होता है।

ऐसी आपात स्थिति से निपटने के लिए भारत को क्या करना चाहिए?

तेल के मामले में किसी भी आपात स्थिति से निपटने के लिए भारत सरकार द्वारा कुछ मात्रा में अतिरिक्त तेल भंडारण करके रखा जाता है। भंडारण का यह काम इंडियन स्‍ट्रेटेजिक पेट्रोलियम रिज़र्वस लिमिटेड द्वारा किया जाता है। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की सलाह के मुताबिक हर देश को कम से कम इतना तेल भंडार रखना चाहिए कि उसकी 90 दिन की ऊर्जा जरूरतें पूरी हो सकें। लेकिन भारत अभी इस मानक से काफी पीछे है। सरकार को चाहिए कि वह अपनी अतिरिक्त ऊर्जा भंडारण की मात्रा को वाजिब स्तर तक बरकरार रखे।

  • भारत को अपने तेल आयात के स्रोतों के अन्य विकल्पों की तलाश करनी चाहिए और इसके लिए रूस और वेनेजुएला जैसे देश सही विकल्प साबित हो सकते हैं। यानी मध्य पूर्व जैसे संवेदनशील क्षेत्रों से निकलकर हमें पूर्वी क्षेत्रों की तरफ ध्यान देना चाहिए।
  • भारत के ज्यादातर तेल और गैस टर्मिनल्स इस के पश्चिमी तट पर स्थित है। जबकि पश्चिमी तट सुरक्षा के लिहाज से थोड़ा संवेदनशील है। इसलिए भारत को अपने तेल और गैस टर्मिनल्स को पूर्वी तट पर भी निर्मित करने चाहिए, क्योंकि पूर्वी तट सुरक्षा के लिहाज से अपेक्षाकृत कम संवेदनशील है।
  • ईरान पर अमेरिका द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों के चलते तेल की खरीददारी डॉलर में करना थोड़ा मुश्किल हो रहा है। ऐसे में, भारत को तेल खरीदने के लिए वस्तु विनिमय प्रणाली यानी Barter system के विकल्प पर भी ध्यान देना चाहिए। हालांकि कुछ देशों के साथ हम यह व्यवस्था पहले से ही चला रहे हैं।
  • इन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत को अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए तेल पर निर्भरता कम करनी चाहिए और इसे नवीकरणीय ऊर्जा जैसे कि सौर और शेल गैस के धारणीय उत्पादन पर ध्यान लगाना चाहिए।